हिन्दी रीतिकाव्य परम्परा और आचार्य भिखारीदास
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Author(s):
KRISHNA KUMAR
Vol - 8, Issue- 11 ,
Page(s) : 19 - 24
(2017 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
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Abstract
हिन्दी रीति परम्परा का विकास आचार्य कृपाराम से प्रारम्भ होता है। हिन्दी रीतिकाल में मुगल बादशाहों का बोलबाला था तथा भक्तिकाल का अवसान हो रहा था। मुगलों के समय दरबारी मनोवृत्ति एवं चाटुकारिता बढ गई थी। कविवर्ग अपनी आय का स्त्रोत बढा़ने के लिए दरबारो में शरण लेने लगे थे। इस अवधि में रीतिकाव्य परम्परा का विकास होता रहा। इस युग का सारा काव्य चाटुकारिता एवं उक्तिवैचित्रय से परे नही है। इस काल के काव्यग्रंथो में विलास की मादकता अधिक दिखाई देती है। रीतियुगीन काव्य को शास्त्रीय चिन्तन दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में देखने से यह स्पष्ट होता है कि इस बात में अलंकार-निरूपण, रस एवं नायक-नायिका भेद निरूपण एवं सर्वांग निरूपक ग्रंथो की रचनाएँ हुई। इन शास्त्रीय कवियो में ऐसे कवि भी हैं, जिन्होने अप्पयदीक्षित और जयदेव के आधार मानकर अलंकार निरूपण किया है। इस श्रेणी के कवियो में केशवदास, जसवन्त सिंह, मतिराम, भूषण, सुरूति मिश्र आदि है। नायक-नायिका भेद निरूपण करने वालो में मुख्यतः आचार्य कृपाराम, सूरदास, रहीम, नंददास, चिन्तामणि आदि प्रमुख हैं। सर्वांग निरूपक कवियो में केशवदास, कुलपति मिश्र, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखारीदास, जगत सिंह, ग्वाल आदि की गणना की जा सकती है। इसी प्रकार से हिन्दी रीति परम्परा में भिखारीदास का स्थान इस प्रकार से देखा जा सकता है।
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