गैर सहायता प्राप्त ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्यों, शिक्षको एंव अभिभावकांे के शिक्षा अधिकार कानून की प्रांसगिकता के प्रति दृष्टिकोण का तुलनात्मक अध्ययन
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Author(s):
MEENA KUMARI , PROF. B.C . DUBEY
Vol - 8, Issue- 10 ,
Page(s) : 118 - 129
(2017 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
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Abstract
शिक्षा के क्षेत्र में नित नये खोज एवं बदलाव सरकारी तन्त्रों को सोचने के लिये विवश करता है। कि समाज में एसा कौन-सा कानून बनाया जाये जिससें कि समाज के लोग किसी भी सुविधा का ज्यादा लाभ प्राप्त कर सकें। किसी भी समाज की शिक्षा व्यवस्था उस समाज की ऐसी धरोहर है जो उस समाज को उन्नति एवं अवनति के पथ पर ले जाने में मदद करती है। भारतीय समाज की शैक्षिक व्यवस्था सामाजिक परिस्थितियों एवं मान्यताओं के विपरीत एक प्रयोग के रूप में अपनाई गई थी। जिसमें सुधार हेतु समय≤ पर आयोग एवं समितियों का गठन कर सुधार दिये जाते रहें है एवं परिस्थिति अनुरूप क्रियान्वयन भी किया जाता रहा है। इसी कड़ी में 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षित करने हेतु सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से सरकार ने कई कार्य संचालित किये एवं उसकी कमियों को दूर करने हेतु एवं सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने हेतु शिक्षा अधिकार कानून को सरकार ने 2010 में नियमावली के माध्यम से लागू किया गया लेकिन कानून के लागू होने के उपरान्त विद्यालय के प्रधानाचार्य शिक्षक एवं अभिभावकों को लागू किये गये कानून से जो समस्या उत्पन्न हुई एवं समाज द्वारा जो मान्यताये उसकों प्रदान की गई उसी की स्थति का आकलन करने हेतु प्रस्तुत अध्ययन की समस्या का चयन किया गया। जिसमें पाया गया कि गैर सहायता प्राप्त ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य शिक्षक एवं अभिभावकों का शिक्षा अधिकार कानून की प्रासंगिकता के प्रति दृष्टिकोण में पर्याप्त भिन्नता पाई गई। जिसमें कानून की प्रासंगिकता पर शिक्षक एवं अभिभावक तथा प्रधानाचार्य द्वारा अलग-2 विचार प्रस्तुत किये गये।
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