International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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''चाक'' स्त्री-विमर्श की महागाथा
1 Author(s): KAVITHA RAJAN
Vol - 5, Issue- 7 , Page(s) : 18 - 23 (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
साहित्य के क्षेत्र में विमर्श की संकल्पना आधुनिक काल का देन है। आज स्त्री- विमर्श, दलित-विमर्श, सत्ता-विमर्श आदि संकल्पनाएँ काफी रूढ़ हुई दिखाई देती है। इसमें भी स्त्री-विमर्श पर बडे पैमाने में चर्चा हो रही है। सदियों से चले आए शोषण एवं दमन के प्रति स्त्री की चेतना ने ही स्त्री-विमर्श को जन्म दिया है। आत्म-चेतना, आत्म सम्मान, आत्म गौरव, समता और समानाधिकारी का दूसरा नाम ही है - "स्त्री-विमर्श''''''''''''''''। स्त्री को अपने अस्तित्व बोध ने विमर्श की प्रेरणा दी। आत्म समर्पण और पुरुष के एकाधिकार शाही के माहौल से स्त्री को बाहर लाने का श्रेय "स्त्री-विमर्श'''''''''''''''' को ही देना होगा। डा. अर्जुन चव्हाण के अनुसार, ""यह स्त्री-विमर्श अपनी अस्मिता की पहचान, स्व की चिंता, अस्तित्व-बोध और अधिकार को जतलाने और बतलाने का विचार चिंतन है। यह सदियों से स्थापित पुरष मानसिकता का तर्पण है, भावुक स्त्री का समर्पण नहीं।