( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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कालिदासीय लघुत्रयी में समाज-वर्ण व्यवस्था एवं वर्णाश्रम व्यवस्था: एक अध्ययन

    1 Author(s):  KRISHNAKANT DUBEY

Vol -  5, Issue- 7 ,         Page(s) : 259 - 285  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

सामाजिक आचार पद्धति मनुष्य के जीवन की सार्वभौम उन्नति एवं समष्टि-कल्याण की भावना से सम्बद्ध होने के कारण जीवन के सर्वाङ्गीण विकास से सम्बन्ध रखती है। भारतीय सामाजिक-आचार-गत आदर्श का आधारतत्त्व भारतीय संस्कृति है, इसलिये सामाजिक आचार-संहिता की सम्पूर्ण प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति के संरक्षण में सन्निहित दिखायी देती है। चिरकाल से सनातन रूप में प्रवाहमान आर्य संस्कृति एवं समाज का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होने के कारण वस्तुतः संस्कृति के स्फुट प्रकाशन का सबल साधन समाज ही है। इसलिये आर्य-संस्कृति के विविध पक्षों को अत्यन्त उदात्त रूप से जन-समाज के सम्मुख रखना ही सामाजिक आचार दर्शन का प्रधान प्रयोजन रहा है।

1 . रेखामात्रमपि क्षुण्णादा मनोर्वत्र्मनः परम्। - रघुवंश 1/17
नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्स एव धर्मो मनुना प्रणीतः -
निर्वासिताऽप्येवमतस्त्वयाऽहं तपस्विसामान्यमवेक्षणीया।। - रघुवंश - 14/67
2. मनुस्मृति - 2/27
3. सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम्।
आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथवत्र्मनाम्।। रघु0 1/5
4. प्रियाऽनुरागस्य मनः समुन्नतेर्भुजार्जितानां च दिगन्तसम्पदाम्।
यथाक्रमं पुंसवनादिकाः क्रिया धृतेश्च धीरः सदृशीव्र्यधत्तसः।। - रघुवंश 3/10, रघुवंश 3/18
5. मनुस्मृति - 2/29
6. रघुवंश - 10/78, 15/31
एषा पराजितानामौषधिरस्य जातकर्म समये भगवता मारीचेन दत्ता 
- अभिज्ञान शाकु0 - 7, पृष्ठ 274
यत् क्षत्रियकुमारस्य जातकर्मादिविधानं तदस्य भगवता
च्यवनेनाशेषमनुष्ठितम्                       - विक्रमोवर्शीयम् - 5, पृष्ठ - 251
7. रघुवंश - 3/21, 5/36, 8/29, 10/67, 10/70, 10/71, 15/32
8. रघुवंश - 3/38 चूड़ाकर्म, 3/29, 30 उपनयन - 3/33 केशान्त एवं विवाह
9. रघुवंश - 8/71, 72, 73, 8/57, 12/56
10. रघुवंश - 8/25
11. रघुवंश - 8/25 पर मल्लिनाथ कृत व्याख्या - 
‘‘अनग्निविधिम् इत्यत्र शौनकः सर्वसंगनिवृत्तस्य ध्यानयोग रतस्यव। न तस्य दहनं कार्यं नैव पिण्डोदकक्रिया। निदध्यात्प्रणवैनैव बिले भिक्षोः क्लेवरम्। प्रोक्षणं खननं चैव सर्व तेनैव करियेत्।’’, पृष्ठ 195
12. तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व भावस्थिराणि जननान्तरसाहृदानि। 
- अभिज्ञान शाकुन्तलम् - 5/2
13. स्थिरोपदेशामुपदेशकाले प्रपेदिरे प्राक्तनजन्मविद्याः - कु0स0 1/30
14 मनो हि जन्मान्तरसंगतिज्ञम् - रघुवंश - 7/15
15. वामनाप्रमपदं ततः परं पावनं श्रुतमृषेरूपेयिवान्।
उन्मनाः प्रथमजन्मचेष्टितान्यस्मरन्नपि बभूव राघवः।। - रघुवंश - 11/22

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