International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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व्यवहारिक भाषा में डाॅ. सुमन राजे की वैविध्यपूर्ण सिद्धहस्तता
1 Author(s): DR. SUDHA MISHRA
Vol - 5, Issue- 12 , Page(s) : 187 - 192 (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
हम साहित्य को मात्र मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते हैं। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वीधीनता का भाव, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष, बेचैनी पैदा करें, सुलायें नहीं क्योंकि सोना अब मृत्यु का लक्षण है। - मुंशी प्रेमचन्द। डाॅ. सुमन राजे ने साहित्य में युग चेतना की अभिव्यक्ति पर विशेष बल दिया उनका विचार था कि साहित्य वह है तो जन कल्याणार्थ अपने भावों को उजागर करें। उनके हित का साधे जो सबको साथ लेकर चले, भेद भाव रहित अर्थात् जिसमें सम्मिलन का भाव है वही साहित्य है। साहित्य समाज के भले के साथ उसके आनन्द से भी जुड़ है परन्तु वह आनन्द तभी है जब वह समाज सापेक्ष हो। कवि संस्कृति का अग्रदूत होता है जिसमें एक उŸोजना होती है जो लोगों में सदभाव जगाती है यथार्थ का भान कराती है। उसके शब्द सोते हुए को जगाते है। साहित्य की चिरनवीनता तथा स्वतन्त्रता की समर्थक होने के कारण उनके विचार का फैलाव किसी सीमा में नहीं बंधता। हमारे विचारों को सम्प्रेषित करने का माध्यम भाषा है।