International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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जैन-व्याकरणों के उद्भव के कारण
2 Author(s): VANDANA RANI , SAMPAT KUMAR
Vol - 6, Issue- 1 , Page(s) : 374 - 377 (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
भाषा-तत्त्वों के विवेचन की परम्परा भारतवर्ष में प्राचीनतम काल से चली आ रही है। ‘‘चत्वारि वाक्परिमितापदानि’’ , ‘‘तां विश्वरूपा: पशवो वदन्ति’’ इत्यादि श्रुति-वाक्यों से स्पष्ट है कि भाषा के विषय में मनन एवं चिन्तन यहाँ आदि काल में ही प्रारम्भ हो गया था। भारतीय भाषा-चिन्तन में भाषा का समग्र विश्लेषण वर्ण, पद, वाक्य के रूप में ही हुआ और इस विश्लेषण को ‘व्याकरण’ तथा ‘शब्दानुशासन’ नाम से अभिहित किया गया है। संस्कृत का व्याकरणशास्त्र अत्यन्त विशद् है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने व्याकरण को वेद के षडङ्गों में प्रधान कहा है-‘‘प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम्।’’