ज़मीन पक रही है;, केदारनाथ सिंह के अन्तरमन भावों की
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Author(s):
RAJKUMAR KHATIK
Vol - 6, Issue- 4 ,
Page(s) : 462 - 471
(2015 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
‘‘ज़मीन पक रही है- उसने कहा
और उसे लगा यह एक ऐसी ख़बर है
जो खरहों की माँद तक पहुँचा देनी चाहिए
वह गायब हो गया
अब उसे खोजना बेकार था
जब बेतार के तार उसे ज़मीन के अन्दर तलाष रहे थे
वह बस्ती के सिरे पर एक मटर के दाने के बाहर खड़ा था
और उससे सटी हुई मिट्टी अपने नाखूनों से खुरच रहा था’’
- मारोती विठोबा सींगले’, (केदारनाथ सिंह के काव्य की गवेषणा’, पृ.सं.:78, समता प्रकाषन, कानपुर, सं.: 2010
- ‘विष्णु खरे, ‘जमीन पक रही है’, ‘‘आलोचना’’, फलेप से
- शेरपाल सिंह, ‘केदारनाथ सिंह का काल्यालोक’, पृ.सं.: 8117, विध्या प्रकाषन, कानपुर, प्र.सं.: 2005
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- मारोती विठोबा सींगले’, (केदारनाथ सिंह के काव्य की गवेषणा’, पृ.सं. 80-81, समता प्रकाषन, कानपुर, सं.: 2010
- रवि श्रीवास्तव, ‘कवि केदारनाथ सिंहरू गोली दंगे न हाथापाई, अपनी है ये अजब लड़ाई’, आलोचना’, अंक: 50, जु.सि.: 2013
- नन्दकिषोर नवल, ‘पृ.सं. 140
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