( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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हिन्दी नवजागरण में गुप्त जी: एक समीक्षा

    1 Author(s):  SURESH KUMAR MISHRA

Vol -  6, Issue- 11 ,         Page(s) : 38 - 47  (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

अहिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘सत्य हरिश्चन्द्र नाटक’ का समापन इस भरत-वाक्य से किया है- खलगनन सों सज्जन दुखी मत होइ, हरि पद रति रहै। उपधर्म छूटै सत्व निज भारत गहै, कर-दुःख बहै।। बुध तजहिं मत्सर नारि-नर सम होंहिं, सब जग सुख लहै। तजि ग्राम कविता सुकवि जन की अमृत बानी सब कहैं।।

1. आलोचक की आस्था              :               डाॅ0 नगेन्द्र
2. आलोचक का दायित्व      :               रामचन्द्र तिवारी
3. आलोचना की सामाजिकता      :               मैनेजर पाण्डेय
4. आलोचना के रचना पुरुष, नामवर सिंह सं0 भारतयायावर
5. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास डाॅ0 बच्चन सिंह
6. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास डाॅ0 बच्चन सिंह
7. आधुनिक हिन्दी साहित्य रवीन्द्र भ्रमर
8. आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द डाॅ0 बच्चन सिंह
9. आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ डाॅ0 नामवर सिंह
10. आधुनिक साहित्य आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी
11. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग डाॅ0 उदय भान सिंह
12. भारती-भारती मैथिलीशरण गुप्त
13. किसान मैथिलीशरण गुप्त
14. पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त
15. यशोधरा मैथिलीशरण गुप्त
16. हिडिम्बा मैथिलीशरण गुप्त
17. जयभारत मैथिलीशरण गुप्त
18. विष्णुप्रिया मैथिलीशरण गुप्त
19. रत्नावली मैथिलीशरण गुप्त
20. मेघनाथ वध मैथिलीशरण गुप्त

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