( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में महर्षि अष्टावक्र जी का योगदान

    1 Author(s):  DR. RAJ KUMAR

Vol -  6, Issue- 12 ,         Page(s) : 110 - 115  (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

महर्षि अष्टावक्र जी गर्भावस्था से ही आत्म-ज्ञानी तथा अध्यात्मवादी थे। ये शास्त्र शिरोमणि वेदपाठी बा्रह्मण महर्षि कहोड तथा सुजाता के पुत्र थे। इनके जन्मजात आत्मज्ञानी होने का विवरण महाभारत में वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व के 132वें अध्याय के 10 वें श्लोक से विदित होता है कि इन्होंने अपनी माँ के गर्भ से ही अपने पिता को अध्यात्म का उपदेश दिया था- सर्वां रात्रिमध्ययनं करोषि नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते1 अर्थात् पिताजी आप रात भर वेदपाठ करते हैं तो भी आपका वह अध्ययन अच्छी प्रकार से शुद्ध उच्चारण पूर्वक नहीं होता अपने अन्दर खोजो ।महर्षि कहोड़ इस प्रकार का उलाहना सुनकर अपमान अनुभव करते हुये कुपित हो उठे उस गर्भस्थ बालक को शाप देते हुये कहा- यस्मात् कुक्षौवर्तमानो ब्रवीषि तस्माद् वक्रो भवितास्यष्टकृत्वः2 अर्थात् तू अभी पेट में रहकर ऐसी टेढ़ी बाते बोलता है अतः तू आठ भागों से टेढ़ा हो जायेगा।इनके पिता की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर थी और इसे दूर करने के लिए महर्षि कहोड राजा जनक के दरबार में गए और राजा जनक से धन प्राप्ति हेतु निवेदन किया ।

1. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/10
2. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/11
3. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/12
4. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/18
5. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/24,25
6. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  133/28-29
7. महाभारतः वन पर्व/तीर्थयात्रा पर्व,  134/2-21
8. अष्टावक्र गीता, 1/2
9. अष्टावक्र गीता, 1/3
10. अष्टावक्र गीता, 1/4
11. श्री शिवगीता , 13/32
12. बृहदारण्यकोपनिषद्,  4/4/7
13. कठोपनिषद्, 2/3/10
14. अष्टावक्र गीता, 5/2
15. मुण्डकोपनिषद्, 1/1/7
16. अष्टावक्र गीता, 8/3
17. श्रीमद्भगवद्गीता, 3/19
18. अष्टावक्र गीता, 3/7
19. श्रीमद्भगवद्गीता, 4/39
20. अष्टावक्र गीता, 10/3-4
21. अष्टावक्र गीता, 17/15
22. श्रीमद्भगवद्गीता, 6/7
23. अष्टावक्र गीता, 14/1
24. वेदान्तसार, 47 (जीवन्मुक्त लक्षणम्)
25. सांख्यकारिका, 67
26. अष्टावक्र गीता, 18/83
27. अष्टावक्र गीता, 18/37
28. श्रीमद्भगवद्गीता, 3/20

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