नारी और धर्म
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Author(s):
BEENA DEVI
Vol - 7, Issue- 5 ,
Page(s) : 253 - 257
(2016 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
वैदिक काल में संपन्न तथा उदात्त भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को पुरूष के समकक्ष स्थान दिया गया। जैसे-जैसे परिस्थितियों में परिवर्तन होता गया, वैसे-वैसे नारी की स्थिति भी परिवर्तित होती गई। महाभारत तक आते-आते उसकी स्थिति शोचनीय हो गई। अब द्रौपदी जैसी महारानी तक का राजसभा में अपमान किया गया, तो आम स्त्री की क्या बिसात थी। मध्यकाल में तो जैसे स्त्री होना ही जुर्म का कारण बन गया। मुगलों तथा मुसलमानों की कुदृष्टि से बचाने के लिए हिन्दु स्त्रियों को पर्दे से ढक दिया गया, उन्हें घर में कैद कर दिया गया, उनकी स्वतंत्रता छीन ली गई तथा बाल-विवाह की कुरीति समाज में तेजी से फैल गई। स्थितियाँ इतनी अधिक बिगड़ गई थी कि स्त्री को स्त्री होने का दुष्परिणाम अपने समस्त जीवन में घुट-घुटकर जीकर भुगतान पड़ता था। आज भी हमारे समाज में पर्दा प्रथा, बाल-विवाह जैसे रिवाज विद्यमान है।
- मैत्रेयी पुष्पा, खुली खिड़कियाँ पृ॰ - 43
- नेमिचंद जैन, अधूरे खाक्षात्कार पृ॰ - 155
- शिवप्रसाद सिंह, औरत, पृ॰ - 117
- राजेन्द्र यादव, एक दुनिया समानांतर, पृ॰-123
- रेणुका नैयर, नारी - स्वातत्र्य के बदलते रूप
- मेहरून्निसा परवेज, सोने का बेसर, पृ॰ 34
- मृणाल पांडेय, एक स्त्री का विदाईगीत, पृ॰ 23
- मन्नू भंडारी, ईसा के घर इंसान, मैं हार गई (कहानी संग्रह) पृ॰ 17-18
- मन्नू भंडारी, रानी माँ का चबूतरा पृ॰ 195
- म्हादेवी वर्मा, मेरे प्रिय निबंध पृ॰ 117-118
- शिवानी, झूला, पृ॰ 52
- सुधीश पचैरी, हंस जून 1997 पृ॰ 37
- नसिरा शर्मा, इसने मरियम, पृ॰ 68
- श्राजेनद्र मिश्र वंशीधर, मन्नू भंडारी का श्रेष्ठ सर्जनात्मक साहित्य पृ॰ - 10
- मैत्रेयी पुष्पा, झूला नट पृ॰ - 11
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