भक्तिकाल: हिन्दी साहित्य का ’स्वर्णयुग‘
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Author(s):
ANJANI KUMAR SHRIVASTAVA
Vol - 7, Issue- 10 ,
Page(s) : 130 - 139
(2016 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
भक्ति आंदोलन एक महान सांस्कृतिक जागरण था जिसने अपनी स्वतंत्र संहिता बनायी है। मानवाधिकार, लोकभाषा आदि की बात करते हुए लोकवृत्त (पब्लिक स्फीयर) का निर्माण करनेवाला यह आंदोलन आज भी गाहे-बगाहे हमारा प्रेरणाश्रोत बन जाता है। राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों को बार-बार भक्तिकाव्य और भक्तकवियों की याद आती रही है। आलोचकों के लिए बार-बार तुलसी और कब़ीर प्रतिमान की तरह व्यवहृत होते रहे हैं तो कवियों-रचनाकारों को भक्त कवि चुनौती देते प्रतीत होते हैं। कविता ही नहीं वरन् अन्य कलाओं को भी भक्ति आंदोलन ने गहरे प्रभावित किया है-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक।
- ग्रियर्सन, हिन्दुस्तान का आधुनिक भाषा साहित्य, (अनुवाद-किशोरीलाल गुप्त), हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी, 1957, पृ. 48
- वही, पृ. 52
- वही, पृ. 55-56
- वही, पृ. 55
- शिवसिंह सेंगर, शिवसिंह सरोज, (सं.) डाॅ. किशोरीलाल गुप्त, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1970, पृ. 8 (भूमिका ’सरोज‘ से)
- वही, पृ. 8
- मिश्रबंधु, मिश्रबंधु विनोद (खण्ड-2), गंगा ग्रंथागार, हैदराबाद, 1972, पृ. 229
- वही, पृ. 229
- वही, पृ. 229
- वही, पृ. 231
- रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, सं. 2047 वि., पृ. 131
- वही, पृ. 75
- रामचन्द्र शुक्ल, सूरदास, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, सं. 2054 वि., पृ. 92-93
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