( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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भारतीय संगीत कला में बढ़ती बाजारवाद की प्रवृत्ति

    1 Author(s):  KM. SHIKHA

Vol -  8, Issue- 2 ,         Page(s) : 83 - 87  (2017 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

वैदिक काल से लेकर वर्तमान समय तक यदि भारतीय संगीत के कालगत विकासक्रम पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होगा कि देश-काल-परिस्थितियाँ और संगीतज्ञों ने इसमें सापेक्ष रूप से परिवर्तन किया। वैदिक काल में जहाॅ संगीत के शास्त्रीय पक्ष को सम्पुष्ट किया गया वही उसके प्रायोगिक पक्ष को भी यथावत रखने का प्रयास किया गया। लेकिन विकास की धारा में संगीत के पारम्परिक तत्वों और उसकी अस्मिता में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ जिसके कारण मूलभूत संगीत के स्वरूप में अन्तर आया है। सामान्यतः इस परिवर्तन का मुख्य कारण विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ रही हैं। क्योंकि कलाकार एक सामाजिक प्राणी है वह जिस समाज में रहता है उसके चारो ओर का वातावरण उसे प्रभावित करता है। अतः उस समाज का प्रतिबिम्ब उसकी कला में अवश्य दिखाई देता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी। अतः प्रकृति का यह नियम संगीत के क्षेत्र में भी लागू हुआ है। आज संगीत का जो रूप हमारे सामने है वह इन परिवर्तनों का ही परिणाम है।

1 भारतीय संगीत पर विदेशी संगीत का प्रभाव। लेख- डाॅ0 केशव तलेगाँवकर, विवेक हिन्दी 18 नवम्बर 2014  
2 भूमण्डलीकरण से जूझती हिन्दी-प्रियंका सिंह,नेशनल दस्तक, 31 मई 2016
3 संगीत कला में बाजारवाद पर टिप्पणी कैलाश खेर यूनिवार्ता  22 मार्च 2016
4 संगीत कला के विभिन्न व्यावसायिक आयाम- गणेश लाल बारेठ, संगीत पत्रिका, नवम्बर 2015
5 सांगीतिक निबन्धमाला- डा0 सीमा जौहरी।
6 संगीत रत्नावली-अशोक कुमार ’यमन’
7 सिनेमा, संस्कृति और नारी-रूद्रेश मिश्रा के ब्लाॅग से।  
8 वर्तमान मंे संगीत की स्थिति-22 जुलाई 2008, साभार इन्टरनेट। 
9 संचार माध्यमों से हिन्दी का भला या बुरा ?- लेख, मनोज कुमार 29 अक्टूबर 2009
10 निबन्ध संगीत-सुगम संगीतः अभिशाप या वरदान ?- द0 कावालेस्की। 

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