( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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समकालीन कहानियों में उपभोक्तावादी संस्कृति और आम आदमी (मधुमती पत्रिका के विशेष संदर्भ में)

    1 Author(s):  DEEPIKA GEVA

Vol -  9, Issue- 11 ,         Page(s) : 173 - 179  (2018 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

भारतीय संस्कृति की व्यापकता के कारण भारत को विश्वगुरू की संज्ञा दी गई है। आज भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति व सभ्यता के समावेश के कारण मानव में विभिन्न नवीन अंकुरों का प्रस्फूटन निरन्तर होता जा रहा है, जिससे मानव अपना चहुँओर तो विकास कर रहा है किन्तु विकास के साथ-साथ उसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति का विनाश भी होता जा रहा है। आज व्यक्ति को व्यावसायिक मनोवृत्ति, सोच तथा विचारधारा व उपभोक्तावादी संस्कृति ने इस कदर जकड़ लिया है कि वह नित नई उलझनों में फँसता जा रहा है। वैज्ञानिक युग होने के कारण आज सामान्य व विशिष्ट व्यक्तियों के जीव में अन्तर बखूबी देखा जा सकता है।

1. (कमल कुमार: सांस्कृतिक आक्रमण और रचनाकार, कथाक्रम, अप्रैल - जून 2010, पृ. सं. 52)
2. (मधुमती पत्रिका: अंक, जनवरी 2002, मेला पुस्तक मेला, रामदरश मिश्र, पृ.सं. 56)
3. (मधुमती पत्रिका अंक- जनवरी 2010, भविष्य, डा. लीला मोदी, पृ.सं. 63)
4. (मधुमती पत्रिका: अंक अप्रैल 2009, स्वीकृति, वेद प्रकाश अमिताभ, पृ. सं. 88)
5. (मधुमती पत्रिका: अंक सितम्बर 2008, बोलती बंद, राजेश कुमार भटनागर, पृ. सं. 58)
6. (वहीं, पृ. सं. 58)
7. (मधुमती पत्रिका: अंक अप्रैल-मई 2010, ‘डूबते को तिनके का सहारा’, पुन्नी सिंह, पृच सं. 97)
8. (मधुमती पत्रिका: अंक अप्रैल-मई 2010, ढहती दिवारे, संगीता माथुर, पृ. सं. 139)
9. (कहानी: समकालीन चुनौतियों, शंभु गुप्त, पृ. सं. 146-147)

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