International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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सौन्दर्य परिचय
1 Author(s): DR. JYOTI JOSHI
Vol - 10, Issue- 7 , Page(s) : 114 - 117 (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
सौन्दर्य प्रसाधन या रूप शृंगार की प्रवृत्ति मानव की स्वयंभू प्रवृत्ति है। अनादिकाल से वह सहज भाव से अपने प्रकृति-प्रदत्त रूप को प्रसाधन द्वारा और अधिक सुन्दर बनाने का प्रयत्न करता आया है। संस्कृतिक में ‘रूप’ शब्द व्यापक एवं सामान्य कोटिक है। रूप का अर्थ निरूपण, अवलोकन अथवा अन्र्वीक्षण। चूंकि यह नेत्रों द्वारा निरूपित किया जाता है, अतः इसे रूप कहते है- ‘‘रूप्यते नेत्राभ्यामवलोक्यतेऽनभूयते वा मनश्चक्षुषेति रूपम्। करण कारक के योग से रूप सौन्दर्य की आधार भूत वस्तु का भी वाचक है। आर्चा आनन्दवर्धन की दृष्टि में सौन्दर्य का लक्षण कहीं अधिक व्यापक है। वे कहते हैं कि लावण्य तो अंगनाओं के सुन्दर अवयवों के भीतर से झलकने वाला अनिर्वचनीय तत्त्व है।1 पाश्चात्य परम्परा में जो सौन्दर्य, सौन्दर्यशास्त्र भूयस्त्वेन विवेचित है, वह प्रायेण शारीरिक ही हैं नाट्यशास्त्र के छत्तीस अध्यायों में सौन्दर्यशास्त्र भी उसी नाट्यशास्त्र का अविचिन्छन्न अंग है। नाटय शास्त्र के आठवें अध्याय में चतुःविध अभिनय की चर्चा में नट अनुकार्य हृदय अंग-समुदाय, वाणी, वेशभूषा, हावभाव, उदस्त, ललित, शान्त और उद्धत चेष्टाओं का जो विश्वसनीय अनुकरण प्रस्तुत करता है वह सब सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है।