( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH

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समकालीन कथा साहित्य

    1 Author(s):  RAJESH RANI

Vol -  5, Issue- 11 ,         Page(s) : 317 - 320  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH

Abstract

किसी भी समाज की इयत्ता उसकी पहिचान के उन स्वरूपों को समेटे रहती है जो वहाँ के लोगों के सोचने-विचारने और इनके अनुसार आचरण करने में सन्निहित रहती है। इसमें उसका समग्र जीवन दर्शन ही नहीं बल्कि सोचे गए तत्त्वों के आधार पर एक-एक क्षण तक को निरंतर जीते चले जाने की आचारशीलता भी सन्निहित रहती है। उसे ठीक से समझ लेने के लिए उसकी सामाजिक संरचनाओं और उनसे निःसृत समाजशास्त्रीय चिंतन को जान लेना जरूरी है। इस बात को नितांत दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि भारतीयता की व्याख्या करते समय परम्परावादियों तथा उसके धुर विरोधी चिंतकों दोनों ने भारतीय समाजशास्त्रीय संरचनाओं की अनदेखी करते हुए अपनी-अपनी अवधारणाओं को अंतिम सत्य मानते हुए उन्हें प्रस्तुत किया है। भारतीयता की अवधारणा वह नहीं है जो इण्डियन सोसायटी के शाब्दिक अनुवाद से निःसृत होती है। क्योंकि भारतीय अवधारणा का समाज वह नहीं है जो संविधान में उल्लिखित ?इण्डिया देट इज भारत? से अपना अर्थ सम्प्रेषित करता है। भारतीय सामाजिक संरचना के मूल में यहाँ का समाज के प्रति प्रकट मौलिक चिंतन है। सम् का अर्थ समान होता है और समस्त भारतीय सामाजिक चिंतन इसी सर्वजन को समाहित करने वाली समानता पर आधारित हैं।

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