विभिन्न काव्यशास्त्रीय आचार्यों के दोषविवेचन की विशेषताएँ
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Author(s):
JORAWAR SINGH
Vol - 5, Issue- 9 ,
Page(s) : 340 - 345
(2014 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में आरम्भिक आचार्य भरतमुनि से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक प्रायः सभी आचार्यों ने दोष का विवेचन किया है। इससे प्रमाणित होता है कि साहित्यशास्त्र में दोष भी रीति, गुण, अलङ्कार, रस आदि के समान ही एक प्रमुख विवेच्य विषय है। संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में दोष के लक्षण, स्वरूप, संख्या तथा वर्गीकरण को लेकर अनेक मत प्रचलित हैं। ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ की उक्ति को अन्य सभी तत्त्वों के विवेचन के समान ही आचार्यों ने दोषविवेचन में भी चरितार्थ किया है। काव्यशास्त्र में प्रचलित इन दोषविषयक समस्त प्रमुख अवधारणाओं का सामान्य-सा विवेचन ही प्रकृत शोधपत्र में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
- ‘गूढार्थमर्थान्तरमर्थहीनं भिन्नार्थमेकार्थमभिप्लुतार्थम्। न्यायादपेतं विषमं विसन्धि शब्दच्युतं वै दश काव्यदोषा।।’ - ना.शा. 16/82
- ‘गुणा विपय्र्ययादेषां माधुर्योदार्यलक्षणाः।’ - ना.शा. 16/89
- महिमभट्ट, डाॅ. ब्रजमोहन चतुर्वेदी, पृ.सं. 223-24
- द्रष्टव्य- भामह, का.अ. 2/40, 43, 49, 50
- ‘तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथञ्चन।’ - का.द. 1/7
- द्रष्टव्य- का.द. 3/125-26
- ‘प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहानिर्दोषो न वेत्यसौ। विचारः कर्कशः प्रायस्तेनालीढेन किं फलम्।।’ - का.द. 3/127
- ‘न लिङ्गवचने भिन्ने न हीनाधिकतापि वा। उपमादूषणायालं यत्रोद्वेगो न धीमताम्।’ - का.द. 2/51
- द्रष्टव्य- का.सू. 2/1/4, 10 तथा 2/2/1, 9
- ‘हीनत्वाधिकत्वलिङ्गवचनभेदासादृश्यऽसम्भवास्तद्दोषाः।’ - का.सू. 4/8
- ‘अनयोर्दोषयोर्विपर्ययाऽऽख्यस्य दोषस्यान्तर्भावान्न न पृथगुपादानम्। अत एवास्माकं मते षड् दोषा इति।’ - का.सू. 4/2/11 की वृत्ति
- ‘काव्यशोभायाः कत्र्तारो धर्माः गुणाः।’ - का.सू. 3/1/1
- ‘गुणविपर्ययात्मानो दोषाः।’ - का.सू. 2/1/1
- ‘सौकर्याय प्रपञ्चः’ - का.सू. 2/1/3
- द्रष्टव्य- रुद्रट्, का.अ. 6/2, 40 तथा 11/2, 24
- रुद्रट्, का.अ. 2/8
- ‘सामान्यशब्दभेदो वैषम्यमसंभवोऽप्रसिद्धिश्च। इत्येते चत्वारो दोषा नासम्यगुपमायाः।।’ - रुद्रट्, का.अ. 11/24
- रुद्रट्, का.अ. 11/24 पर नमिसाधु की टिप्पणी।
- ‘पुष्टार्थानलंकारं मध्यममपि सादरं रचयेत्।’ - रुद्रट्, का.अ. 6/46
- ‘अनौचित्यादृते नान्यद्रसभङ्गस्य कारणम्।’ - ध्वन्या. 3/19
- ‘ननु सूक्तिसहस्रद्योतितात्मनां महात्मनां दोषोद्घोषण आत्मन एव दूषणं भवतीति न विभज्य दर्शितम्।’ - ध्वन्या. वृत्ति, पृ.सं. 94
- इण्डियन हिस्टोरिकल (पाक्षिकी) सितम्बर 1944, 20वाँ अंक, पृ.सं. 217
- ‘काव्यस्यात्मनि संज्ञिते रसादिरूपे न कस्यचिद्विमतिः।’ - व्य.वि. 1/26
- ‘एतस्य च विवक्षितरसादिप्रतीतिविघ्नविधायित्वं नाम सामान्यलक्षणम्।’ - व्य.वि., पृ. 152
- इण्डियन हिस्टोरिकल (पाक्षिकी) 1944 सितम्बर, 20वाँ अंक, पृ.सं. 217
- डाॅ. ब्रजमोहन चतुर्वेदी, महिमभट्ट, पृ.सं. 253
- ‘रसापकर्षकाः दोषाः।’ - सा.द. 7/1 ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं दोषास्तस्यापकर्षकाः।’ - सा.द. 1/3
- डाॅ. ब्रजमोहन चतुर्वेदी, महिमभट्ट, पृ.सं. 253
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