International Research journal of Management Sociology & Humanities
( ISSN 2277 - 9809 (online) ISSN 2348 - 9359 (Print) ) New DOI : 10.32804/IRJMSH
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क्या संस्कृत का समय समाप्त हुआ
1 Author(s): DR. SHIXA
Vol - 6, Issue- 6 , Page(s) : 261 - 265 (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
भास से लेकर कालिदास, भवभूति, विशाखदत्त और शूद्रक जैसे रचनाकारों ने विश्व साहित्य को समृद्ध करने वाली रचनाएं दी थीं. अभिज्ञान शाकुंतलम, मुद्राराक्षस, मृच्छ कटिकम, उत्तर रामचरित, देवी चंद्रगुप्त, स्वप्नवासवदत्त जैसे संस्कृत नाटकों ने दुनिया के रंगकर्मियों-कवियों-आलोचकों को चमत्कृत किया था और पश्चिम की दुनिया के सामने भारतीय संस्कृति का गौरव सिद्ध किया था. लेकिन यह दृश्य थोड़ा हैरान करता है कि संस्कृत नाटकों का रचनात्मक स्तर सातवीं सदी के भट्टनारायण के बाद से गिरता ही चला गया. महानारायण का एक ही नाटक उपलब्ध है वेणी संहार. उनके बाद मुरारि ने आठवीं सदी में अनर्धराघव लिखा लेकिन रचनात्मकता की दृष्टि से वह भी खासा ही कमजोर है. दसवीं सदी में राजशेखर याद किए जा सकते हैं. इनके कई नाटक कुल मिलाकर अच्छे होने के बावजूद बहुत लोकप्रिय नहीं हुए.