उत्तराखण्ड की मंदिर-वास्तुकला कुमाऊँ के मंदिरों के विशेष संदर्भ में
1
Author(s):
PRASHANT JOSHI
Vol - 7, Issue- 4 ,
Page(s) : 104 - 110
(2016 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
मनोगत भावों को सौन्दर्य के साथ दृश्य रूप में व्यक्त करना ही कला है। कला मनुष्य की सौन्दर्य भावना को मूत्र्तरूप प्रदान करती है। प्रत्येक कलात्मक प्रक्रिया का उद्देश्य सौन्दर्य तथा आनन्द की अभिव्यक्ति होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा इस रूप में उसे अपनी भावनाओं तथा विचारों का प्रत्यक्षीकरण अथवा प्रकटीकरण करना पड़ता है, जो कला के माध्यम से ही संभव है। प्राचीन काल में कला को साहित्य और संगीत के समकक्ष मानते हुए मनुष्य के लिए उसे आवश्यक बताया गया है। ‘नीतिशतक’ मंे भर्तृहरि कहते है कि ‘साहित्य संगीत तथा कला से हीन मनुष्य पूँछ और सींग से रहित साक्षात् पशु के समान है’-
- ऋग्वेद 1ः41.5, 5.63.6
- ब्राउन, पर्सी, इंडियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट एवं हिन्दू पीरीयड), पृष्ठ संख्या 152
- अथर्ववेद 9.3,4.
- वास्तुज्ञानमथातः कमलभवान्मुनि पराम्परायातम्-बृहत्संहिता, 50,2.
- शास्त्रं कर्म तथा प्रज्ञाशीलं चं क्रिययान्वितम्। लक्ष्यलक्षण युक्तार्थ शास्त्र निष्ठो नरो भवेत्।। वस्तु केवल शास्त्रज्ञः कर्मस्व परिनिष्ठितः स मुहृाति क्रियाकाले दृष्ट्वा भी रिवाहवम्।। समरांगणसूत्रधार 44,2.8.
- सक्सेना, कौशल किशोर-हिमवान कुमाऊँः कला, शिल्प एवं संस्कृति, अल्मोड़ा, 2013, पृष्ठ संख्या-23,
- सक्सेना वहीःपृष्ठ 25
- भट्ट, डाॅ मदन चन्द्रः उत्तराखण्ड का पुरातत्व, उत्तर-प्रदेश-पुरातत्व 1981, पृष्ठ 159
- पाण्डे, बद्रीदत्तः कुमाऊँ का इतिहास, अल्मोड़ा 1937, पृष्ठ संख्या-159
- जोशी, एम0पी0-पर्सनाल्टी आॅफ उत्तराखण्ड, टैम्पिल आर्कीटेवचर, इंस्टीट्यूट आॅफ हिस्टारिकल स्टडीज के अल्मोड़ा में सम्पन्न अधिवेशन पर प्रकाशित स्मारिका 1982 पृष्ठ संख्या-29
- कठौच, यशंवत सिंहः मध्य हिमालय का पुरातत्व, 1981, पृष्ठ संख्या-37
- सहाय, सच्चिदानंदः मंदिर स्थापत्य का इतिहास, पटना 1981 पृष्ठ संख्या-5
|