वेद एवं उपनिषद में परिकलिपत यम-नियम की अवधरणा ;विश्वशानित और समता के संदर्भ मेंद्ध
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Author(s):
SUSHMA DEVI
Vol - 4, Issue- 2 ,
Page(s) : 375 - 383
(2013 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
भारतीय वाÄमय के इतिहास में वैदिक साहित्य का मूधर््न्य स्थान है, जिनके अन्तर्गत वेद, ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद आते हैं। वेद भारतीय संस्कृति के मूलाधर तथा शाश्वत ज्ञान-विज्ञान के मूलस्रोत हैं। इनमें मानव जीवन प(ति को विकसित करने वाले समस्त तत्त्व समाहित हैं। वेदों में ज्ञान की जो अजस्रधरा प्रवाहित है वह मानवमात्रा के लिये ही नहीं अपितु समस्त विश्व के लिये कल्याणकारी है। वेदों के ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन ही उपनिषदों में किया गया है। उपनिषदों का मूल उददेश्य अपने पाठक एवं साध्क को मुकित प्रदान कराना है। उपनिषद के अèययन से âदय की सभी ग्रनिथयाँ नष्ट हो जाती हैं और जन्म-मृत्यु का बन्ध्न शिथिल पड़ जाता है। प्रस्तुत शोध्-पत्रा में वेद तथा उपनिषद के आधर पर यम-नियम का वर्णन किया गया है, जो विश्वशानित तथा समता की भावना को स्थापित करने में अतिसहायक है।
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- एस., डाॅ. राधकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग-2, पृ.354
- (क) मनु., 2/204 (ख) अत्रि सं., 47
- (क) ट्ट., 3/73/10, 1/83/5, 10/135/1, 1/163/2 (ख) यजु., 29/13
- एतमु त्यं दश क्षिपो हरिं हिन्वन्ति यातवे। सामवेद, 12/73 पर पं. विश्वनाथ का भाष्य
- (क) शाण्डिल्योपनिषद, 1/1 (ख) जाबालोपनिषद् 1/6 (ग) त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् श्लोक-28 (घ) या. स्मृ., 3/313
- नारदपरिव्राजकोपनिषद्, 4/10-12
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- मनु., 5/47
- ईशा. मन्त्रा 6-7 (ख) यजु., 40/6-7
- योगदर्शन, 2/30 पर व्यासभाष्य
- अथर्व., 3/30/3
- मुण्डकोपनिषद्, 3/1/6
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- मनु., 8/7
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- जाबालदर्शनोपनिषद्
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- योगदर्शन ;साध्नपादःद्ध, 38
- आप्टे, वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ.967
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- यजु., 40/1 तथा ईशावास्योपनिषद्, 1
- अथर्व., 3/24/5
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- आप्टे, वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ.1067
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- योगदर्शन, 2/3/2 पर व्यासभाष्य
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- वेदालंकार, डाॅ. रघुवीर, उपनिषदों में योग विद्या, प्रथम अध्याय
- ट्ट., 10/134/13
- ईशावास्योपनिषद्, 1
- मनु., 11/12
- ;कद्ध योगदर्शन ;साध्नपादःद्ध, 43 ;खद्ध सांख्यदर्शन, 5/129
- योगदर्शन, 2/32 पर व्यास भाष्य
- तैत्तिरीयोपनिषद्, 3/3
- ट्ट., 10/16/4
- (क) बृहद्योगियाज्ञवल्क्य स्मृ., 7/59 ;खद्ध या. स्मृ., 1/101
- तैत्तिरीयोपनिषद्, 1/9/1
- वही, 1/11/1
- ईश्वरप्रणिधनम् त्र ईश्वरे सर्वकर्मार्पणम् त्र कर्मपफलाभिसन्ध्शिून्यता। योगदर्शन, 2/32 पर व्यासभाष्य
- ईशावास्योपनिषद्, 2
- ट्ट., 10/125/5
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