पञ्चस्तिकाय में निहित आत्म-तत्त्व विमर्श
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Author(s):
KHUSHBU KUMARI JAIN
Vol - 5, Issue- 5 ,
Page(s) : 99 - 104
(2014 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMSH
Abstract
जैनाचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का समय प्रथम शती है जिन्होंने सर्वप्रथम आध्यात्मिक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनके पूर्ववर्ति जैनाचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना में ही अधिक रुचि दिखाई। इस प्रकार जैन दर्शन का एक दार्शनिक शाखा के रूप में स्थापित करने में कुन्दकुन्द स्वामी की मौलिक एवं अभूतपूर्व भूमिका है। कुन्दकुन्द ने इस हेतु विपुल साहित्य की सर्जना की जिसमें दर्शन से सम्बन्धित ग्रन्थों में ‘प्रवचनसार’, ‘समयसार’ एवं ‘पञ्चास्तिकाय’ का महत्वपूर्ण स्थान है।
- जीवोत्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता।भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्म संजुत्तो।। 27 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 54
- ण वियप्पदि णणादो णाणी णणाणि होंति णेगाणि। तम्हा तु विस्सरुवं भणियं दवियत्ति णाणीहि।। 43 मदिणाणं पुण तिविहं उवलब्ध्ी भावणं च उवओगो। तह एव चदुवियप्पं दंसणपुव्वं हवदि णाणं।। 44 सुदणाणं पुण णाणी भणंति ल(ि य भावणा चेव। उवओगणयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स।। 45 अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तयण्णत्तं। णेच्छंति णिच्चयण्हू तव्विवरीदं हि वा तेसिं।। 51 ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा। ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते।। 52 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 78-93
- णाणं णेय णिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो।। 48 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 82
- जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदो पहू कत्ता। भत्तो य देह मत्तो ण हि युत्तो कम्म संजुत्तो। 27 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 54
- जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य। पावदि इंदिय रहिदं अव्वाबाहं सगमुत्त्तम्।। 29 प×चास्तिकाय, कुुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली
- एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अथा सगेहिं कम्मेहिं। हिं{दि णरमपारं संसारं मोह संद्दण्णो।। 75 उवसंत खीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि ध्ीरो।। 76 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- समयसार, कुन्दकुन्दाचार्य, कुन्दकुन्दभारती, नई दिल्ली, 1978 जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग पिसेसिदो पहू कत्ता।
- भवो य देह मत्तो ण हि मुत्तो कम्म संजुत्तो।अगुरुलहुगा अणंता तेहि अणंतेहिं परिणदा सव्वे। देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा।। 31 केचिच्च अणावण्णा मिच्छादंसण कसायजोगजुदा। विजुदा य तेहिं बहुगा सि(ा संसारिणो जीवा।। 32 जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पहासयदि खीरे। तह देही देहत्थो सदेह मेत्तं महासयदि।। 33 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 68-69
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